ब्रजहिं बसैं आपुहिं बिसरायौ।
प्रकृति पुरुष एकहि करि जानहु, बातनि भेद करायौ।।
जल थल जहाँ रहौं तुम बिनु, नहिं बेद उपनिषद गायौ।
द्वै-तन जीव-एक हम दोऊ, सुख-कारन उपजायौ।।
ब्रह्म-रूप द्वितिया नहिं कोऊ, तब मन तिया जनायौ।
सूर स्याम मुख देखि अलप हँसि, आनँद-पुंज बढ़ायौ।।1687।।