ब्रजराज लड़ैतौ गाइयै, (मन) मोहन जाकौ नाउँ।
खेलत फागु सुहावनी, (रँग) भीजि रह्यौ सब गाउँ।।
ताल पखावज बाजही, (हो) डफ सहनाई भेरि।
स्रवन सुनत सब सुंदरी, (हो) झुंडनि आई घेरि।।
इतहि गोप सब राजही, (हो) उत सब गोकुलनारि।
अनि मीठी मनभावती, (हो) देहिं परस्पर गारि।।
चोवा चंदन छिरकही, (हो) उड़त अबीर गुलाल।
मुदित परस्पर रोलही, (हो) हो हो बोलत ग्वाल।।
सब गोपिनि हाथर पकरि (हो) छाँड़े पाइ लगाइ।
दाऊ आजु भले बने, (हो) आए आँखि अँजाइ।।
बहुरि सिमिटि ब्रजसुंदरी, (हो) पकरे गोकुलनाथ।
नव कुमकुम मुख मौड़ि कै, (हो) बेनी गूँथी माथ।।
तब नंदरानी बीच कियौ, (बहु) मेवा दिये मँगाइ।
पट भूषन दियौ सबनि कौ (हो) निरखि 'सूर' बलि जाइ।।2900।।