ब्रजजन दुखित अति तन छीन -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग केदारौ


ब्रजजन दुखित अति तन छीन।
रटत इकटक चित चातक, स्याम-घन-तन-लीन।।
नाहिं पलटत बसन भूषन, दृगनि दीपक तात।
विलख बदन मलीन तन ज्यौ, तरनि बिनु जलजात।।
कहन जो तुम कहे सो मत, पच्यौ करि उपदेस।
धरत जल ज्यौ नलिनि दल नहि, बचन उर न प्रवेस।।
धरे मुरली मोर चंद्रिक, पीतपट बनमाल।
रही वह छवि अंग अंगनि, लपटि स्याम तमाल।।
दिवस बितवति सकल जन मिलि, कहत गुन बलबीर।
रैनि उडुपति निरखि तलफतिं मीन ज्यौ बिनु नीर।।
होहु करुनानाथ बंधू, गहे ऊधौ पाइँ।
‘सूर’ प्रभु अब दरस दै कै, लेहु मरत जिवाइ।।4140।।

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