बैठी राधा थीं यमुना-तट -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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तर्ज लावनी - ताल कहरवा


बैठी राधा थीं यमुना-तट मन-ही-मन कर रहीं विचार।
मेरे कारण प्रियतमको होता है कितना कष्ट अपार॥
आते मेरे पास सभी आवश्यक कार्यों का कर त्याग।
सहते हिम-‌आतप-वर्षा अति, रखते नहीं कहीं कुछ राग॥
बड़े-बड़े तार्किक, सिद्धान्ती, तत्त्वज्ञानी, सिद्ध, विदेह।
निन्दा करते, खण्डन करते कर भगवत्ता में संदेह॥
महान ईश्वर सब लोकों के, सबके एकमात्र आधार।
सर्वातीत, सर्वमय, जिनसे सबका होता है विस्तार॥
वही परात्पर प्रभु करते हैं, मुझमें कैसा पावन मोह!
नहीं पलकभर भी सह सकते मेरा कभी नितान्त बिछोह॥
परम प्रेममय, प्रेम-रसिक-वर प्रेम-विवश वे प्रेमाधार।
मेरे मनके तोष-हेतु वे करते सब कुछ अङ्गीकार॥
कहाँ नगण्य, तुच्छ मैं, रूप-गुणों से विरहित, दोषागार।
कहाँ सर्व सद्‌गुण-सुषमा-सौन्दर्य अप्रतिम के भंडार॥
मेरे दोषों पर प्रियतम की नहीं कदापि दृष्टि जाती।
लगता-उनके सुख की मुझमें सब गुणराशि स्थान पाती॥
सब भगवाा भूल, वरण करते वे कुत्सा, कष्ट, कलङ्क।
देख तनिक मुख लान तुरत हो आतुर वे भर लेते अङ्क॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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