बिसरसति क्यौ गिरिधर की बातै।
अवधि आस लगि रह्यौ, मधुप, मन, तजि न गयौ घट तातै।।
हरि कै विरह छीन भइ ऊधौ, दोउ दुख परे सघातै।
तन रिपु काम, चित रिपु लीला, ज्ञान गम्य नहि तातैं।।
स्रवन सुन्यौ चाहत गुन हरि कौ, जा वै कथा पुरा तै।
लोचन रूप ध्यान धरयौ निसि दिन, कहौ घटै को कातै।।
ज्यौ नृप प्रान गए सुत अपनै, राँचि रह्यौ जो जातै।
‘सूर’ सुमति तौ ही पै उपजे, हरि आवै मथुरा तै।।3679।।