बिरहातुर, अति कातर, सब जग भूलि, गई कालिंदी-तीर।
पकरि कदंब-डारि ठाढ़ी, ह्वै बावरि, बहत अमित दृग-नीर॥
चित नहिं धरत धीर नैकहु, पल-पल प्रति काँपि रह्यो मृदु गात।
कल न परत, हिय जरत, दाह अति दारुन, भरत आह, बिललात॥
अति आतुर ’प्रिय सखी’[1] आइ पहुँची, तहँ, देखि दसा, तजि धीर॥
बोली अति मृदु बैन मैन-मोहनको, लखि हिय बिंध्यौ सु-तीर॥
’सखि ! धीरज धरु, तजु गलानि, मैं जाइ तुरत सब हाल सुनाय।
प्रियतम मन-मोहन कौं अब हीं हौं अपने सँग लाउँ लेवाय’॥
प्रिय सखिके मृदु वचन सुनत, भूली प्यारी निज तन को भान।
प्रियतम-रूप भई मन, तेहि छिन, करन लगी निज गुन-गन-गान॥
’हा राधे ! प्रानेस्वरि ! हा मनहरनि ! मधुर सुन्दरता-खानि।
सद्गुन-निधि, नित-नव सुखदायिनि, सुमिरत होत सकल दुख-हानि॥
हौं नित बिक्यौ हाथ तुव स्वामनि ! बिना मोल को चेरौ मान।
प्यारी ! मधुर दरस-रस कौं तुव तड़पि रहे ये प्यासे प्रान॥
छायौ अति दारुन वियोग-विष तुव, सब तन अति विषम अपार।
मुख-ससि-सुधा सींचि सत्वर, विष हरु, अब पिय कौं लेउ उबार’॥