बिरचि मन बहुरि राँचौ आइ।
टूटी जुरै बहुत जतननि करि, तऊ दोष नहिं जाइ।।
कपट हेत की प्रीति निरंतर, नाथि चुषाई गाइ।
दूध फाटि जैसै ह्वै काँजी, कौन स्वाद करि खाइ।।
केरा पास जु बैरि निरंतर, हालत दुख दै जाइ।
स्वातिं बूँद ज्यौं परै फनिक मुख, परत बिषै ह्वै जाइ।।
एती कतो तुम जो उनकी, कहत बनाइ बनाइ।
‘सूरजदास’ दिगंवरपुर तै, रजक कहा ब्यौसाइ।।3957।।