बिनु हरि भक्ति मुक्ति नहि होइ2 -सूरदास

सूरसागर

द्वादश स्कन्ध

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राग बिलावल
राजा परीक्षित हरि-पद-प्राप्ति




हरि कौ रूप कह्यौ नहिं जाइ। अलख अखंड सदा इक भाइ।।
फिरि जब हरि की इच्छा होइ। देखै माया की दिसि जोइ।।
माया तब सबहीं उपजावै। ब्रह्मा ह्वै पुनि सृष्टि उपावै।।
उतपति प्रलय सदा यौ होइ। जन्मैं मरै सदाई लोइ।।
हरि कौ भजै सो हरि पद पावै। जनम मरन तिहि ठौर न आवै।।
नृप मैं तोहि भागवत सुनायौ। अरु तुम सुनि हिय माहिं बसायौ।।
मुक्ति मोहिं संसय नहि कोइ। सुनै भागवत मैं सो होइ।।
सप्तम दिवस आजु है राउ। हरि चरनारबिंद चित लाउ।।
यह अच्छेदऽभेद अनिवासी। सर्व गती अरु सर्व उदासी।।
द्रष्टहि द्रष्ट सोइ द्रष्टार। काकौ दीखै को दिखहार।।
हरि स्वरूप सौ रतिहि विचार। मिथ्या तन कौ मोह विसार।।
नृप कह्यौ तन कौ मोह न कोइ। याकौ जो भावै सो होइ।।
मोहिं अब सर्व ब्रह्म दरसावै। तच्छक भय मन मैं नहि आवै।।
तुम प्रसाद मैं पायौ ज्ञान। छुटि जो मिथ्या देहऽभिमान।।
सुक जान्यौ नृप कौ भयौ ज्ञान। आज्ञा लै करि कियौ पयान।।
तच्छक नृप सरीर कौ डस्यौ। नृप तन तजि हरि पद बस्यौ।।
सूत सौनकनि कहि समुझायौ। मैं हूँ ता अनुसार सुनायौ।।
अंत समय हरि पद चित लावै। 'सूरदास' सो हरि पद पावै।। 4 ।।

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