बिनती करत मरत हौ लाज।
नख-सिख लौं मेरी यह देही है पाप की जहाज।
और पतित आवत न आँखि-तर देखत अपनौ साज।
तीनौं पन भरि ओर निबाहयौ तऊ न आयौ वाज।
पाछैं भयौ न आगैं ह्वै है, सब पतितनि सिरताज।
नरकौ भज्यौ नाम सुनि मेरौ, पीठि दई जमराज।
अबलौं नान्हे-नून्हे तारे, ते सब बृथा अकाज।
साँचे बिरद सूर के तारत, लोकनि-लोक अवाज।।96।।