बिनती करत गुबिंद गुसाई।
दै सब सौज अनंत लोकपति, निपट रंक की नाई।।
धरि धन, धाम सजन के आगै, स्याम सकुचि कर जोरे।
टहल जोग यह कुँवरि सुभद्रा, तुम सम नाही कारे।।
इतनी सुनत पाँडुनंदन कह्यौ, यहै बचन प्रभु दीजै।
‘सूरज’ दीनबंधु अब इहिं कुल, कन्या जन्म न कीजै।। 4304।।