बिछुरी मनौ संग तैं हिरनी -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग सारंग
संपाती-वानर-संवाद


 
बिछुरी मनौ संग तैं हिरनी।
चितवत रहत चकित चारौं दिसि, उपजी बिरह तन जरनी।
तरुवर मूल अकेली ठाढ़ी, दुखित राम की घरनी।
बसन कुचील, चिहुर लपिटाने, बिपति जाति नहिं बरनी।
लेति उसास नयन जल भरि-भरि धुकि सो परै धरि धरनी।
सूर सोच जिय पोच निसाचर, राम नाम की सरनी॥73॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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