क्षमा कर दो श्याम!
मैं तो तुम्हारे चरणों की दासी हूँ।
अब दया करो,
किन्तु तुममे दया ही होती तो जाते क्यों?
मथुरा में कौन-सा ऐसा बड़ा काम था,
अपने सुख के लिये ही तो गये हो।
तुम्हें क्या पता कि यहाँ हमारी क्या दशा है।
घर में सास जी रोज खीझती हैं,
फिर भी जी नहीं मानता,
जंगलों में भटकने चली आती हूँ,
जैसे तुम यहाँ बैठे ही हो।
जो राजसिंहासन पर बैठकर आनन्द से दिन काटता हो,
जिसे और किसी का ध्यान न आता हो,
उसकी याद में घुलना सरासर पागलपन है।
कितनी बार मैंने निश्चय किया कि
तुम्हारी परछांइ की भी बात न सोचूँगी,
किन्तु पता नहीं मैं कब सोचना आरम्भ कर देती हूँ।
तो क्या सचमुच मैं बावरी हो गयी?