हम और कन्हैया के दुःख का कारण बनें?
मैं जीती रहूँगी।
मछली की नीति ठीक नहीं।
मैं मछली से भली हूँ।
किंतु मछली बेचारी क्या यह सोचकर मरती है कि
वह विरह-दुःख से छूट जाय?
वह विवश है,
उसका प्रेम इतना प्रगाढ़ है,
इतना वेगवान् है,
इतना पूर्ण है, कि
वह प्रिय का क्षणमात्र भी वियोग नहीं सह सकती।
प्रेम में नीति या नियम की बात कहाँ?
प्रेम तो प्रिय का संयोग जानता है।
संयोग नहीं तो कुछ नहीं।
संयोग बिना आशा, धैर्य और भावी सुख की कल्पना‘
ये सब नहीं रह जाते।