बाहर तो निकल आयी, पर जाऊँ कहाँ?
पैर तो स्वतः उधर ही बढ़ रहे हैं,
जिधर रोज जाया करते थे।
किंतु वहाँ जाने से क्या लाभ?
शान्ति की आशा से बाहर निकली हूँ,
उस स्थान में तो अब
संसार भर की पीड़ा
और अशान्ति एकत्र हो गयी है।
हाय-हाय, सखियों के घर से कराहें आ रहीं हैं।
देखो तो बेचारी गायें सोयीं नहीं।
तनिक-सी आहट पाते ही इधर-उधर देखने लगती हैं।
बछड़े पास में हैं, किंतु उनकी ओर कुछ ध्यान नहीं।
ऐसी दुखी दिखायी पड़ती हैं,
मानो सबके बछड़े मर गये हों।