बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 60

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

10. कूबरी, तुझे धिक्कार है

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बाहर तो निकल आयी, पर जाऊँ कहाँ?
पैर तो स्वतः उधर ही बढ़ रहे हैं,
जिधर रोज जाया करते थे।
किंतु वहाँ जाने से क्या लाभ?
शान्ति की आशा से बाहर निकली हूँ,
उस स्थान में तो अब
संसार भर की पीड़ा
और अशान्ति एकत्र हो गयी है।
हाय-हाय, सखियों के घर से कराहें आ रहीं हैं।
देखो तो बेचारी गायें सोयीं नहीं।
तनिक-सी आहट पाते ही इधर-उधर देखने लगती हैं।
बछड़े पास में हैं, किंतु उनकी ओर कुछ ध्यान नहीं।
ऐसी दुखी दिखायी पड़ती हैं,
मानो सबके बछड़े मर गये हों।

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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