नहीं, निहीं, प्रियतम!
मेरा धर्म यह नहीं है।
अब मैं समझ गयी।
पता नहीं तुम किस क्षण आ जाओ,
आकर अपनी वस्तुओं को इस दशा में देखोगे
तो मुझे क्या कहोगे।
देखो प्यारे!
आज मैंने खूब अच्छी तरह स्नान किया है,
तुम्हारे प्रिय सुघर, चिकने तथा गोरे अंगों को निखार दिया है,
सुगन्धित अंगराग भी लेप लिया है।
देखो माधव!
मेरी यह चूनर कितनी अच्छी है,
हाय, मेरी आज की वेष-भूषा तुम देखते तो कहते!
श्वेत और सुगन्धित पुष्पों से युक्त मेरी वेणी कैसी लहरा रही है।
किंतु कान्हा!
यह सब तो कर लिया, अब करूँ क्या?
आह, कहीं तुम कदम्ब पर चढ़े बैठे होते,
मधुर-मधुर मुरली टेरते होते।
कौन जाने, शायद बैठे ही हों।
तो उधर ही चलूँ,