तेरा क्या ठिकाना,
तुझ पर अब विश्वास नहीं रहा।
फिर भी तेरे कहने से मैं सब नाच नाचूँगी।
दूसरों को क्यों दुःख दूँ?
अच्छा तो चलना चाहिये।
किंतु दुपहरी जल रही है,
गर्म-गर्म लपटें निकल रही हैं-
जान पड़ता है ऊपर से कन्हैया को न देखकर
सूर्य भगवान् उसे व्रज की गलियों में ढूँढ़ने के लिये
धीरे-धीरे नीचे उतर रहे हैं।
सारी धरती गोपाल के विरह में जल रही है।
तू बड़ा निर्दयी है मन!
इतने पर भी तू कहता है कि चल।
अच्छी बात है, चलूँगी।