जिसने जाकर यशोदा मैया से कह दिया;
उसका घड़ा तो किसी प्रकार न बचने पाता था।
मक्खन का घड़ा तो फूटता ही था,
पानी भरने के कई घड़े फोड़ दिये जाते थे।
न जाने कहाँ छिप बैठे रहते थे।
कुएँ पर उसने घड़ा रक्खा नहीं कि
एक सनसनाता हुआ ढेला आया और घड़े में छेद।
बेचारी तंग आकर क्षमा माँगती थी
तब कहीं पिंड छूटता था।
उनके नटखटपन में भी एक विचित्र आनन्द था।
मुझसे एक बार मचल पड़े थे,
मैं दही की मटकी लेकर चौधरी के घर जा रही थी,