बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 20

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

4. और कूक

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चन्द्रमा नीचे उतर आने के लिये पूर्ण शक्ति लगाता था,
किन्तु बेचारे के भाग्य में वह सुख कहाँ था!
उस आनन्द की अधिकारिणी तो हमीं लोग थीं।
चन्द्रमा ललचाये नेत्रों से रात्रिभर देखता रहा,
अन्त में निराश होकर चला गया!
क्या यही वह भूमि है?
आज यह भी रोती-सी दिखायी पड़ती है।
प्यारे माधव!
भूमि है,
कुञ्ज है,
चन्द्रमा है,
हम हैं,
किन्तु हा! तुम नहीं हो!
केवल तुम्हारे न रहने से सब व्यर्थ हैं!
सब कुछ नीरस है!

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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