बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 19

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

4. और कूक

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वे मुझसे एक हाथ दूर तो मैं सवा हाथ दूर।
किन्तु बिहारी तो सामने ही
मधुर मुस्कान के साथ खड़े हुए दिखायी पड़ते हैं।
मैं कहती हूँ उनकी बात नहीं सोचूँगी, नहीं सोचूँगी।
अरे घुँघरु का यह एक दाना कैसा पड़ा है?
मेरा ही तो मालूम पड़ता है,
ओ हो, स्मरण आया,
बड़े परिश्रम से मेलेभर में घूमकर
ऐसे दानों का घुँघरू खरीदा था।
पूर्णिमा को महारास में नृत्य करना था न!
मेरे घुँघरू के मधुर शब्द को सुनकर
सब सखियाँ ईर्ष्या करने लगी थीं।
श्यामसलोने भी वंशी बजाते-बजाते
प्रायः मेरी ओर आ जाते थे।
कैसी मादक चितवन थी,
मुसकान तो बेसुध कर देती थी।
मुरली की तान से हृदय में लहरें उठने लगती थीं।

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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