बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 13

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

3. मेरी ही भूल थी

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जब मन्द-मन्द मुसकाकर ब्रजमोहन
तुझसे वार्तालाप करेंगे,
तब तू समझेगी कि वाणी-माधुर्य
केवल रमणियों में ही नहीं होता।
हम अभागिनों को तो केवल उनके मुख से सुनने को ही मिलता है,
जो वहाँ कुछ दिन रहकर आती हैं।
तू लौटेगी तो तुझसे भी कुछ सुनने को मिलेगा।’
वे कहती थीं और मैं मुसकाती थी।
मन-ही-मन सोचती थी कि ये सब क्या बक रही हैं।
कैसा है वह कन्हैया, जो सबको मोहित कर लेता है?
मेरा-उससे क्या सम्बन्ध?
वह अपने घर, मैं अपने घर।
मैं उससे बात ही क्यों कहने लगी,
वह लाख मुसकाये, मैं क्यों देखने लगी।
किन्तु हे रसराज!
यहाँ आकर मैंने जाना कि तुम्हारी मदभरी चितवन देखते ही
मन हाथ से निकल जाता है।

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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