जब मन्द-मन्द मुसकाकर ब्रजमोहन
तुझसे वार्तालाप करेंगे,
तब तू समझेगी कि वाणी-माधुर्य
केवल रमणियों में ही नहीं होता।
हम अभागिनों को तो केवल उनके मुख से सुनने को ही मिलता है,
जो वहाँ कुछ दिन रहकर आती हैं।
तू लौटेगी तो तुझसे भी कुछ सुनने को मिलेगा।’
वे कहती थीं और मैं मुसकाती थी।
मन-ही-मन सोचती थी कि ये सब क्या बक रही हैं।
कैसा है वह कन्हैया, जो सबको मोहित कर लेता है?
मेरा-उससे क्या सम्बन्ध?
वह अपने घर, मैं अपने घर।
मैं उससे बात ही क्यों कहने लगी,
वह लाख मुसकाये, मैं क्यों देखने लगी।
किन्तु हे रसराज!
यहाँ आकर मैंने जाना कि तुम्हारी मदभरी चितवन देखते ही
मन हाथ से निकल जाता है।