आज कहूँगी वा छलिया से,
याद करो वा गागरिया
मैं तो चली पिया की डागरिया।।
(नेत्र बंद होने के कारण मार्ग से अलग हो जाती है, सामने एक वृक्ष आ जाता है)
छोड़ न सकती, मैं हूँ तुम्हारी
तुम हो हमारे साँ..........................
(पेड़ से सिर टकरा जाता है)
आह!
.....वरिया।
(सिर में ठोकर लगने से शिथिलता बढ़ जाती है। पेड़ के तने को दोनों हाथों से पकड़कर चुपचाप खड़ी हो जाती है। इसी समय सास पहुँच जाती है और बड़े स्नेह से उसकी बाहों को छुड़ाकर अपने कंधे का सहारा देकर घर की ओर धीरे-धीरे ले जाती है। इसके नेत्र बंद हैं, प्रेम-विहृल हैं, उसे सुधि नहीं कि कौन कहाँ लिये जा रहा है। वह समझती है कि मैं मथुरा जा रही हूँ, अतः रुक रुककर उसके हृदय के अंतरमन से भी ये शब्द निकल रहे हैं)
मैं तो......
चली.........
पिया की................?
डागरिया।
(घर ले जाकर सास पलँगपर लिटा देती है, गोपी बेसुध ही रहती है।)
एक नहीं, या विधि सबै, हहरि मरीं ब्रज-बाल।
गोपीवल्लभ नावं तुव, व्यर्थ पर्यो, गोपाल।।