बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 107

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

17. यही आशा तो बैरिन हो गयी

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नहीं तो, पता नहीं मैं कब तक बँधे-बँधे जीवन बिताती।
यह कष्ट भोगने के लिये अधिक दिन न जीती मोहन!
वहीं पत्थर पर सर पटक कर प्राण दे देती।
वह भी अच्छा होता,
इस विरह-व्यथा से छुटकारा तो मिल जाता।
बन्धन से मुक्त होकर ही मैं कौन पलने में झूल रही हूँ?
फिर वही तुम्हारा स्मरण,
उन्हीं क्रीड़ाओं का स्मरण,
वही रात-दिन की कसक!
ब्रज के पेड़-पत्थर पसीज गये,
किंतु तुम न पसीजे!
तुम्हारे ही कारण मेरी यह दुर्दशा हुई थी,
तुमने, कुछ भी सुधि न ली।
फिर भी, मैं तुम्हारी याद में घुल रही हूँ,
अब भी तुम्हारे दर्शन को तड़प रही हूँ।

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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