भक्तबछल बानौ है मेरौ, बिरुददिं कहा लजाऊँ।
यह कहि मया मोह अरुझाए, सिसु ह्वै रोवन लागे।
अहो बसुदेव, जाहु लै गोकुल, तुम हौ परम सभागे।
धन-दामिनि धरती लौं कौधै जमुना-जल सौं पागे।
आगैं जाउँ जमुन-जल गहिरौ, पाछैं सिंह जु लागे।
लै बसुदेव धँसे दह सूबे, सकल देव अनुरागे।
जानु, जंब, कटि, ग्रीव नासिका, तब लियौ स्याम उछाँगे।
चरन पसारि परसी कालिंदी, तरवा नीर तियागे।
सेष सहस फन ऊपर छायौ, लै गोकुल कौं भागे।
पहुँचे जाइ महर-मंदिर मैं, मनहिं न संका कीनी।
देखी परी जोगमाया, बसुदेव गोद करि लीनी!
लै बसुदेव मधुपुरी पहुँचे प्रगट सकल पुर कीनी।
देवकी-गर्भ भई है कन्या, राइ न बात पतोनी।
पटकत सिला गई, आकासहिं दोउ भुज चरन लगाई।
गगन गई, बोली, सुरदेवी, कंस, मृत्यु नियराई।
जैसैं मीन जाल मैं क्रीड़त गनै न आपु लखाई।
तैसैंहि, कंस, काल उपज्यौ है, ब्रज मैं जादवरार्इ।
यह सुनि कंस देवकी आगैं रह्यौ चरन सिर नार्इ।
मैं अपराध कियौ, सिसु मारे, लिख्यौ न मेट्यौ जाई।
काकैं सत्रु जन्मी लीन्यौ है, बूझे मतौ बुलाई।
चारि पहर सुख-सेज परे निसि, नैकु नींद नहिं आई।
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, आनँद-तूर बजायौ!
कंचन-कलस होम, द्विज-पूजा, चंदन भवन लिपायौ।
बरन-बरन रँग ग्वाल बने, मिलि गोपिनि मंगल गायौ।
बहु बिधि ब्योम कुसुम सुर बरषत, फूलनि गोकुल छायौ।
आनँद भरे करत कौतूहल, प्रेम-मगन नर-नारी।
निर्भय अभय-निसान बजावत, देत महरि कौं गारी।
नाचत महर मुदित मन कीन्हे, ग्वाल बजावत तारी।
सूरदास प्रभु गोकुल प्रगटे, मथुरा-गर्व-प्रहारी॥4॥