बार बार जननी समुझावति।
काहे कौं तहँ-तहँ डोलति, हमकौं अतिहिं लजावति।।
अपने कुल की खबरि करौ धौं, सकुच नहीं जिय आवति।
दधि बेंचहु घर सूधैं आवहु, काहैं झेर लगावति।।
यह सुनि कै मन हर्ष बढायौ, तब इक बुद्धि बनावति।
सुनि मैया दधि माट ढरायौ, तिहिं डर बात न आवति।।
जान देहि कितनौ दधि डारयौ, ऐसैं तब न सुनावति।
सुनहु सूर इहिं बात डरानी, माता उर लै लावति।।1632।।