बारक नैननि हीं मिलि जाहु।
कमलनन घनस्याम राधिकहि, परसत जो न पत्याह॥
जानत हो करकमल बिरोधी, बरन विरोधी बाहु।
ससि मुख संतु, पयोधर गिरि आति तहे तुम क्यौऽव समाहु॥
गजपति मंद मराल विरोधी, हेम सुरुचि रिपु दाहु।
जंघ कदलि, कटि सिंघ विरोधी, न्याय निरखि सकुचाहु॥
छीनि लए सव चोरि सकल अग, एको सुपत ना साहु।
तदपि 'सूर' उनकी रुचि राखो, कत आधिकैऽव डराहु ॥3233॥