बात कहौ जो लहै, वहै री।
बिना भीति तुम चित्र लिखति हौ, सो कैसे निबहै री।
तुम चाहति हौ गगन-तरैयाँ, माँगे कैसें पावहु।।
आवत हीं मैं तुम लखि लीन्ही, कहि मोहि कहा सुनावहु।
चोरी रही, छिनारौ अब भयौ, जान्यौ ज्ञान तुम्हारौ।।
औरै गोप-सुतनि नहिं देखौ, सूर स्याम है वारौ।।773।।