बहुरौ देखिवौ इहिं भाँति ।
असन बाँटत खात बैठे, बालकन की पाँति ।।
एक दिन नवनीत चोरत, हौ रही दुरि जाइ ।
निरखि मम छाया भजे मैं दौरि पकरे धाइ ।।
पोंछि कर मुख लई कनियाँ, तब गई रिस भागि ।
वह सुरति जिय जाति नाही, रहे छाती लागि ।।
जिन घरनि वह सुख बिलोक्यौ, लगत अब खान ।
‘सूर’ बिनु ब्रजनाथ देखे, रहत पापी प्रान ।। 3216 ।।