बहुरि पपीहा बोल्यौ माई।
नीद गई चिंता चित बाढ़ी, सुरति स्याम की आई।।
सावन मास मेघ को बरषा, हौ उठि आँगन आई।
चहुँ दिसि गगन दामिनी कौधति, तिहिं जिय अधिक डराई।।
काहूँ राग मलार अलाप्यौ, मुरलि मधुर सुर गाई।
'सूरदास' विरहिनि भइ व्याकुल, धरनि परी मुरझाई।। 3332।।