सुरनि हित हरि कछप-रूप धान्यौ3 -सूरदास

सूरसागर

अष्टम स्कन्ध

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राग मारू



बहुरि धन्वंत्रि आयौ समुद्र सों निकसि, सुरा अरु अमृत निज संग छितायौ।
सुरनि भगवान, सौं आनि बिनती करी, असुर सब अमृत लै गए छिनाई।
कहयौ भगवान, चिंता न कछु मन धरौ, मैं करौ अब तुम्हारी सहाई।
मोहिनी रूप धरि स्याम आए तहाँ , देखि सुर- असुर सब रहे लुभाई।
आइ असुरनि कहयौ, लेहु यह थमृत तृम सवनि कौ बाँटि मेटौ लराई।
हँहि कह्मौ, नहीं, हम तुम्हैं कछु मित्रता, बिना विस्वास बाँटयौ न जाई।
कह्यौ, तुम बाँटि पर हमै विस्वास है, देहु तुम बाँटि जो धर्म कोई।
कह्यौ, सब सुर-असुर मथन कीन्हयौ जलधि, सबनि देउँ, हे धर्म सोई।
कहयौ , जो करो सो हमे परमान है, असुर-सुर पाँति करि तब बिठाई।
असुर-दिसि चिते मुसुक्याइ मोहे समल , सुरनि कौ अमृत दीन्हौ पियाई ।
राहु ससि सूर के बीच मै बैठि कै, मोहिनि सौ अमृत माँगि लीन्हयौ ।
सूर ससि कहयौ, यह असुर, तब कृष्नजू लै सुदरसन सू द्वे टूक कीन्हयौ ।
राहु सिर, केतु धर कौ भयौ, तबहिं तै सूर-ससि कौ सदा दुःखदाई।
करत भगवान रक्षा जो ससि-सूर की, होत है नित सुदरसन सहाई।
करि अँतरधान हरि मोहिनी-रूप कौ गरुड़ असवार ह्वै तहाँ आए।
असुर चक्रित भए, गई वह नारि कहँ, सुर-असुर युद्ध हि दोउ धाए।
सुरनि की जीति भई ,असुर मारे बहुत , जहाँ-तहं गए सबही पराई।
सूर प्रभु जिहिं करै कृपा , जीतै सौई , बिनु कृपा जाइ उद्यम वृधाई ।।8।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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