बहुत नारि सुहाग-सुंदरि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग गौरी


बहुत नारि सुहाग-सुंदरि और घोष कुमारि।
सजन-प्रीतम-नाम लै-लै, दै परसप‍र गारि।
अनँद अतिसै भयो घर-घर, नृत्यै ठावँहि-ठावँ।
नंद-द्वारे भेंट लै-लै उमह्यौ गोकुल गाँवँ।
चौक चंदन लीपि कै, धरि आरती सँजोइ।
कहति घोष-कुमारि, ऐसौ अनँद जौ नित होइ!
द्वार सथिया देति स्यामा, सात सीक बनाइ।
नव किसोरी मुदित ह्वै-ह्वै गहति जसुदा पाइ।
करि अलिंगन गोपिका, पहिरैं अभूषन-चीर!
गाइ-बच्छा सँवारि ल्याए, भई ग्वारनि भीर।
मुदित मंगल सहित लीला करैं गोपी-ग्वाल।
हरद, अच्छत, दूब, दधि लै, तिलक करैं ब्रजवाल।
एक एक न गनत काहूँ, इक खिलावत गाइ।
एक हेरी देहिं गावहिं एक भेंटहिं धाइ।
एक विरध-किसोर-बालक एक जोवन जोग।
कृष्न-जन्म-सु प्रेम-सागर क्रीडै़ सब व्रज-लोग।
प्रभु मुकुंद कैं हेत नूतन होहिं घोष-बिलास।
देखि ब्रज को संपदा कौं फूलै सूरजदास॥26॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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