बलि गइ बाल-रूप मुरारि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग नटनारायन



बलि गइ बाल-रूप मुरारि।
पाइ पैंजनि रटति रुन-झुन, नचावति नँद-नारि।
कबहुँ हरि कौं लाइ अँगुरी, चलन सिखवति ग्वारि।
कबहुँ हृदय लगाइ हित करि, लति अंचल डारि।
कबहुँ हरि कौं चितै चूमति, कबहुँ गावति गारि।
कबहुँ लै पाछे दुरावति, ह्याँ नहीं बनवारि।
कबहुँ अँग भूषन बनावति, राइ-लोन उतारि।
सूर सुर-नर सबै मोहे, निरखि यह अनुहारि।।118।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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