प्रेम सुधा सागर पृ. 55

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
नवम अध्याय

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श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये। वात्सल्य-स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदा जी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयीं।[1]

इससे श्रीकृष्ण को कुछ क्रोध आ गया। उनके लाल-लाल होंठ फड़कने लगे। उन्हें दाँतों से दबाकर श्रीकृष्ण ने पास ही बड़े हुए लोढ़े से दही का मटका फोड़-फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखों में भर लिये और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे[2]यशोदा जी औटे हुए दूध को उतारकर[3]

फिर मथने के घर में चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दही का मटका[4] टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि सब सब मेरे लाला की ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदा रानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मैया मना करती रही- ‘नेक-सा माखन तो निकाल लेने दे।’ ‘ऊँ-ऊँ-ऊँ, मैं तो दूध पीऊँगा’ - दोनों हाथों से मैया की कमर पकड़कर एक पाँव घुटने पर रखा और गोद में चढ़ गये। स्तन का दूध बरस पड़ा। मैया दूध पिलाने लगी, लाला मुस्कराने लगे, आँखें मुस्कान पर जम गयीं। ‘ईक्षती’ पद का यह अभिप्राय है कि जब लाला मुँह उठाकर देखेगा और मेरी आँखें उस पर लगी मिलेंगी, तब उसे बड़ा सुख होगा। सामने पद्मगन्धा गाय का दूध गरम हो रहा था। उसने सोचा- ‘स्नेहमयी माँ यशोदा का दूध कभी कम न होगा, श्यामसुन्दर की प्यास कभी प्यास कभी बुझेगी नहीं! उनमें परस्पर होड़ लगी है। मैं बेचारा युग-युग का, जन्म-जन्म का श्यामसुन्दर के होंठों का स्पर्श करने के लिये व्याकुल तप-तपकर मर रहा हूँ। अब इस जीवन से क्या लाभ जो श्रीकृष्ण के काम न आवे। इससे अच्छा है उनकी आँखों के सामने आगे में कूद पड़ना।’ माँ के नेत्र पहुँच गये। दयार्द्र माँ को श्रीकृष्ण का भी ध्यान न रहा; उन्हें एक ओर डालकर दौड़ पड़ी। भक्त भगवान को एक ओर रखकर भी दुःखियों की रक्षा करते हैं। भगवान अतृप्त ही रह गये। क्या भक्तों के हृदय-रस से, स्नेह से उन्हें कभी तृप्ति हो सकती है? उसी दिन से उनका एक नाम हुआ-‘अतृप्त’।
  2. श्रीकृष्ण के होंठ फड़के। क्रोध होंठों का स्पर्श पाकर कृतार्थ हो गया। लाल-लाल होंठ श्वेत-श्वेत दूध की दन्तुलियों से दबा दिये गये, मानो सत्त्वगुण रजोगुण पर शासन कर रहा हो, ब्राह्मण क्षत्रिय को शिक्षा दे रहा हो। वह क्रोध उतरा दधि मन्थन के मटके पर। उसमें एक असुर आ बैठा था। दम्भ ने कहा- काम, क्रोध और अतृप्ति के बाद मेरी बारी है। वह आँसू बनकर आँखों में छलक आया। श्रीकृष्ण अपने भक्तजनों के प्रति अपनी ममता की धारा उड़ेलने के लिये क्या-क्या भाव नहीं अपनाते? ये काम, क्रोध, लोभ और दम्भ भी आज ब्रह्म-संस्पर्श प्राप्त करके धन्य हो गये! श्रीकृष्ण घर में घुसकर बासी मक्खन गटकने लगे, मानो माँ को दिखा रहे हों कि मैं कितना भूखा हूँ। प्रेमी भक्तों के ‘पुरुषार्थ’ भगवान नहीं हैं, भगवान की सेवा है। ये भगवान की सेवा के लिये भगवान का भी त्याग कर सकते हैं। मैया के अपने हाथों दुहा हुआ यह पद्मगन्धा गायों का दूध श्रीकृष्ण के लिये ही गरम हो रहा था। थोड़ी देर के बाद ही उनको पिलाना था। दूध उफन जायगा तो मेरे लाला भूखे रहेंगे - रोयेंगे, इसीलिये माता ने उन्हें नीचे उतारकर दूध को सँभाला।
  3. यशोदा माता दूध के पास पहुँचीं। प्रेम का अद्भुत दृश्य! पुत्र को गोद से उतार कर उसके पेय के प्रति इतनी प्रीति क्यों? अपनी छाती का दूध तो अपना है, वह कहीं जाता नहीं। परन्तु यह सहस्रों छटी हुई गायों के दूध से पालित पद्मगन्धा गाय का दूध फिर कहाँ मिलेगा? वृन्दावन का दूध अप्राकृत, चिन्मय, प्रेम जगत का दूध - माँ को आते देखकर शर्म से दब गया। ‘अहो! आग में कूदने का संकल्प करके मैंने माँ के स्नेहानन्द में कितना बड़ा विघ्न कर डाला? और माँ अपना आनन्द छोड़कर मेरी रक्षा के लिये दौड़ी आ रही है। मुझे धिक्कार है।’ दूध का उफनना बंद हो गया और वह तत्काल अपने स्थान पर बैठ गया।
  4. कमोरा
  5. ‘माँ! तुम अपनी गोद में नहीं बैठाओगी तो मैं किसी खल की गोद में जा बैठूँगा’ - यही सोचकर मानो श्रीकृष्ण उलटे ऊखल के ऊपर जा बैठे। उदार पुरुष भले ही खलों की संगति में जा बैठें, परन्तु उनका शील-स्वभाव बदलता नहीं है। ऊखल पर बैठकर भी वे बन्दरों को माखन बाँटने लगे। सम्भव है रामावतार के प्रति जो कृतज्ञता का भाव उदय हुआ था, उसके कारण अथवा अभी-अभी क्रोध आ गया था, उसका प्रायश्चित करने के लिये! श्रीकृष्ण के नेत्र हैं ‘चौर्यविशंकित’ ध्यान करने योग्य। वैसे तो उनके ललित, कलित, छलित, बलित, चकित आदि अनेकों प्रकार के ध्येय नेत्र हैं, परन्तु ये प्रेमीजनों के हृदय में गहरी चोट करते हैं।

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