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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
पैंसठवाँ अध्याय
परीक्षित! भगवान बलराम जी के दर्शन से, उनकी प्रेमभरी चितवन से गोपियाँ निहाल हो गयीं। उन्होंने हँसकर पूछा- ‘क्यों बलराम जी! नगर-नारियों के प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल ही हैं न ? क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माता की भी याद आती है? क्या वे अपनी माता के दर्शन के लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे? क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी हम लोगों की सेवा का भी कुछ स्मरण करते हैं। आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियों को छोड़ना बहुत ही कठिन है। फिर भी हमने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु, पति-पुत्र और बहिन-बेटियों को भी छोड़ दिया। परन्तु प्रभो! वे बात-की-बात में हमारे सौहार्द और प्रेम का बन्धन काटकर, हमसे नाता तोड़कर परदेश चले गये; हम लोगों को बिलकुल ही छोड़ दिया। हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परन्तु जब वे कहते कि हम तुम्हारे ऋणी हैं- तुम्हारे उपकार का बदला कभी नहीं चुका सकते, तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी बातों पर विश्वास न कर लेतीं’। एक गोपी ने कहा- ‘बलराम जी! हम गाँव की गँवार ग्वालिनें ठहरीं, उनकी बातों में आ गयीं। परन्तु नगर की स्त्रियाँ तो बड़ी चतुर होती हैं। भला, वे चंचल और कृतघ्न श्रीकृष्ण की बातों में क्यों फँसने लगीं; उन्हें तो वे नहीं छका पाते होंगे!’ दूसरी गोपी ने कहा- ‘नहीं सखी, श्रीकृष्ण बातें बनाने में तो एक ही हैं। ऐसी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें गढ़ते हैं कि क्या कहना! उनकी सुन्दर मुसकुराहट और प्रेम भरी चितवन से नगर-नारियाँ भी प्रेमावेश से व्याकुल हो जाती होंगी और वे अवश्य उनकी बातों में आकर अपने को निछावर कर देती होंगीं’। तीसरी गोपी ने कहा- ‘अरी गोपियों! हम लोगों को उसकी बात से क्या मतलब है? यदि समय ही काटना है तो कोई दूसरी बात करो। यदि उस निष्ठुर का समय हमारे बिना बीत जाता है तो हमारा भी उसी की तरह, भले ही दुःख से क्यों न हो, कट ही जायेगा’। अब गोपियों के भाव-नेत्रों के सामने भगवान श्रीकृष्ण की हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु-चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिंगन आदि मुर्तिमान् होकर नाचने लगे। वे उन बातों की मधुर स्मृति में तन्मय होकर रोने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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