प्रेम सुधा सागर पृ. 394

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
अट्ठावनवाँ अध्याय

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इसके बाद पाण्डवों की प्रार्थना से भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के रहने के लिये एक अत्यन्त अद्भुत और विचित्र नगर विश्वकर्मा के द्वारा बनवा दिया। भगवान इस बार पाण्डवों को आनन्द देने और उनका हित करने के लिए वहाँ बहुत दिनों तक रहे। इसी बीच अग्निदेव को खाण्डव-वन दिलाने के लिए वे अर्जुन के सारथि भी बने। खाण्डव-वन का भोजन मिल जाने से अग्निदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुन को गाण्डीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणों वाले तरकस और एक ऐसा कवच दिया, जिसे कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेद न सके। खाण्डव-दाह के समय अर्जुन ने मय दानव को जलने से बचा लिया था। इसलिये उसने अर्जुन से मित्रता करके उनके लिये एक परम अद्भुत सभा बना दी। उसी सभा में दुर्योधन को जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम हो गया था ।

कुछ दिनों के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियों का अनुमोदन प्राप्त करके सात्यकि आदि के साथ द्वारका लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने विवाह के योग्य ऋतु और ज्यौतिष-शास्त्र के अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्न में कालिन्दीजी का पाणिग्रहण किया। इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियों को परम मंगल और परमानन्द की प्राप्ति हुई ।

अवन्ती (उज्जैन) देश के राजा थे विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधन के वशवर्ती तथा अनुयायी थे। उनकी बहिन मित्रविन्दा ने स्वयंवर में भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना पति बनाना चाहा। परन्तु विन्द और अनुविन्द ने अपनी बहिन को रोक दिया। परीक्षित्! मित्रविन्दा श्रीकृष्ण की फुआ राजाधिदेवी की कन्या थी। भगवान श्रीकृष्ण राजाओं की भरी सभा में उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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