प्रेम सुधा सागर पृ. 385

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
छप्पवनवाँ अध्याय

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प्रभो! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक-सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अन्दर रहने वाले बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे (अवश्य ही आप मेरे वे ही ‘रामजी’ श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं)’। परीक्षित्! जब ऋक्षराज जाम्बवान् ने भगवान को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतु की कृपा से भरकर प्रेम-गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान् जी से कहा— ‘ऋक्षराज! हम मणि के लिये ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ’। भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान् ने बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिये अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया ।

भगवान श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा से नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुःखी होकर द्वारका को लौट आये। वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफा में से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ। सभी द्वारकावासी अत्यन्त दुःखित होकर सत्राजित् को भला-बुरा कहने लगे और भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिये महामाया दुर्गादेवी की शरण में गये, उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुर्गादेवी प्रसन्न हुईं और उन्होंने आशीर्वाद किया। उसी समय उनके बीच में मणि और नववधु जाम्बवती के साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये। सभी द्वारकावासी भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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