प्रेम सुधा सागर पृ. 367

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
तिरपनवाँ अध्याय

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वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजी के विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपाल को ही मिले, इस विचार से आये थे। उन्होंने अपने-अपने मन में यह पहले से ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण बलराम आदि यदुवंशियों के साथ आकर कन्या को हरने की चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओं ने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे ।

विपक्षी राजाओं की इस तैयारी का पता भगवान बलरामजी को लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारी का हरण करने के लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़े की बड़ी आशंका हुई। यद्यपि वे श्रीकृष्ण का बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भातृस्नेह से उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों की बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर के लिये चल पड़े ।

इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्ण की तो कौन कहे, अभी ब्राह्मण देवता भी नहीं लौटे! तो वे बड़ी चिन्ता में पड़ गयीं; सोचने लगीं। ‘अहो! अब मुझ अभागिनी के विवाह में केवल एक रात की देरी है। परन्तु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान अब भी नहीं पधारे! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जाने वाले ब्राह्मण देवता भी तो अभी तक नहीं लौटे। इसमें सन्देह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरे हाथ पकड़ने के लिये—मुझे स्वीकार करने के लिये उद्दत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं ?। ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं! विधाता और भगवान शंकर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझसे अप्रसन्न हों’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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