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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
अड़तालीसवाँ अध्याय
प्रभो! स्वयं आत्मवस्तु में स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह आदि उपाधियाँ न होने के कारण न तो उसमें जन्म-मृत्यु है और न किसी प्रकार का भेदभाव। यही कारण है कि न आपमें बन्धन है और न मोक्ष! आपमें अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार बन्धन या मोक्ष की जो कुछ कल्पना होती है, उसका कारण केवल हमारा अविवेक ही है। आपने जगत के कल्याण के लिये यह सनातन वेदमार्ग प्रकट किया है। जब-जब इसे पाखण्ड-पथ से चलने वाले दुष्टों के द्वारा क्षति पहुँचती है, तब-तब आप शुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण करते हैं। प्रभो! वही आप इस समय अपने अंश श्री बलराम जी के साथ पृथ्वी का भार दूर करने के लिये यहाँ वसुदेव जी के घर अवतीर्ण हुए हैं। आप असुरों के अंश से उत्पन्न नाममात्र से शासकों की सौ-सौ अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे और यदुवंश के यश का विस्तार करेंगे। इन्द्रियातीत परमात्मन! सारे देवता, पिता, भूतगण और राजा आपकी मूर्ति हैं। आपके चरणों की धोवन गंगा जी तीनों लोगों को पवित्र करती हैं। आप सारे जगत के एकमात्र पिता और शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्य की सीमा न रही। प्रभो! आप प्रेमी भक्तों के परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हितू और कृतज्ञ हैं - जरा-सी सेवा को भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण में जायगा? आप अपना भजन करने वाले प्रेमी भक्त की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। यहाँ तक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होती - जो एकरस है, अपने उस आत्मा का भी आप दान कर देते हैं। भक्तों के कष्ट मिटाने वाले और जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुड़ाने वाले प्रभो! बड़े-बड़े योगिराज और देवराज भी आपके स्वरूप को नहीं जान सकते। परन्तु हमें आपका साक्षात दर्शन हो गया, यह कितने सौभाग्य की बात है। प्रभो! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदि के मोह की रस्सी में बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी माया का खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धन को शीघ्र काट दीजिये।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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