प्रेम सुधा सागर पृ. 321

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सैंतालीसवाँ अध्याय

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दूसरों के साथ जो प्रेम-सम्बन्ध का स्वाँग किया जाता है, वह तो किसी-न-किसी स्वार्थ के लिये ही होता है। भौंरों का पुष्पों से और पुरुषों का स्त्रियों से ऐसा ही स्वार्थ का प्रेम-सम्बन्ध होता है। जब वेश्या समझती है कि अब मेरे यहाँ आने वाले के पास धन नहीं है, तब उसे वह धता बता देती है। जब प्रजा देखती है कि यह राजा हमारी रक्षा नहीं कर सकता, तब वह उसका साथ छोड़ देती है। अध्ययन समाप्त हो जाने पर कितने शिष्य अपने आचार्यों की सेवा करते हैं? यज्ञ की दक्षिणा मिली कि ऋत्विज लोग चलते बने। जब वृक्ष पर फल नहीं रहते, तब पक्षीगण वहाँ से बिना कुछ सोचे-विचारे उड़ जाते हैं। भोजन कर लेने के बाद अतिथि लोग ही गृहस्थ की ओर देखते हैं? वन में आग लगी कि पशु भाग खड़े हुए। चाहे स्त्री के हृदय में कितना भी अनुराग हो, जार पुरुष अपना काम बना लेने के बाद उलटकर भी तो नहीं देखता।'

परीक्षित! गोपियों के मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्ण में ही तल्लीन थे। जब भगवान श्रीकृष्ण के दूत बनकर उद्धव जी व्रज में आये, तब वे उनसे इस प्रकार कहते-कहते भूल ही गयीं कि कौन-सी बात किस तरह किसके सामने कहनी चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने बचपन से लेकर किशोर-अवस्था तक जितनी भी लीलाएँ की थीं, उन सबकी याद कर-करके गोपियाँ उनका गान करने लगीं। वे आत्मविस्मृत होकर स्त्री-सुलभ लज्जा को भी भूल गयीं और फूट-फूटकर रोने लगीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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