प्रेम सुधा सागर पृ. 174

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोविंश अध्याय

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देश, काल, पृथक-पृथक सामग्रियाँ, उन-उन कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठान की पद्धति, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यज्ञमान, यज्ञ और धर्म - सब भगवान के ही स्वरूप हैं। वे ही योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान विष्णु स्वयं श्रीकृष्ण के रूप में यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परन्तु हम इतने मूढ़ हैं कि उन्हें पहचान न सके। यह सब होने पर भी हम धन्याति धन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी भक्ति से हमारी बुद्धि भी भगवान श्रीकृष्ण के अविचल प्रेम से युक्त हो गयी है।

प्रभो! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं! श्रीकृष्ण! आपका ज्ञान अबाध है। आपकी ही माया से हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मों के पचड़े में भटक रहे हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। वे आदि पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण हमारे इस अपराध को क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी माया से मोहित हो रही है और हम उनके प्रभाव को न जानने वाले अज्ञानी हैं।

परीक्षित! उन ब्राह्मणों ने श्रीकृष्ण का तिरस्कार किया था। अतः उन्हें अपने अपराध की स्मृति से बड़ा पश्चाताप हुआ और उनके हृदय में श्रीकृष्ण-बलराम के दर्शन की बड़ी इच्छा भी हुई; परन्तु कंस के डर के मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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