प्रेम सुधा सागर पृ. 151

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
बीसवाँ अध्याय

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जो मेढ़क पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलों की गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगे - जैसे नित्य-नियम से निवृत होने पर गुरु के आदेशानुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठी करने लगते हैं। छोटी-छोटी नदियाँ, जो जेठ-अषाढ़ में बिलकुल सूखने को आ गयी थीं, वे अब उमड़-घुमड़कर अपने घेरे से बाहर बहने लगीं - जैसे अजितेंद्रिये पुरुष के शरीर और धन सम्पत्तियों का कुमार्ग में उपयोग होने लगता है।

पृथ्वी पर कहीं-कहीं हरी-हरी घास की हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियों की लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों[1] के कारण वह सफ़ेद मालूम देती थी। इस प्रकार उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो किसी राजा की रंग-बिरंगी सेना हो। सब खेत अनाजों से भरे-पूरे लहलहा रहे थे। उन्हें देखकर किसान तो मारे आनन्द के फूले न समाते थे, परन्तु सब कुछ प्रारब्ध के अधीन है - यह बात न जानने वाले धनियों के चित्त में बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजे में कैसे रख सकेंगे।

नये बरसाती जल के सेवन से सभी जलचर और थलचर प्राणियों की सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान की सेवा करने से बाहर और भीतर के दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं। वर्षा-ऋतु में हवा के झोंकों से समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरंगों से युक्त हो रहा था, अब नदियों के संयोग से वह और भी क्षुब्ध हो उठा - ठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगी का चित्त विषयों का सम्पर्क होने पर कामनाओं के उभार से भर जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सफ़ेद कुकुरमुत्तों

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