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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चतुर्दश अध्याय
जो गुरु रूप सूर्य से तत्त्वज्ञान रूप दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उससे आपको अपने स्वरूप के रूप में साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस झूठे संसार-सागर को मानो पार कर जाते हैं।[1] जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप में नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण ही इस नाम रूपात्मक निखिल प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम हो जाता है। किन्तु ज्ञान होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है। जैसे रस्सी के भ्रम के कारण ही साँप की प्रतीति होती है और भ्रम के निवृत होते ही उसकी निवृति हो जाती है। संसार-सम्बन्धी बन्धन और उससे मोक्ष - ये दोनों ही नाम अज्ञान से कल्पित हैं। वास्तव में ये अज्ञान के ही दो नाम हैं। ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से भिन्न अस्तित्व नहीं रखते। जैसे सूर्य में दिन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही विचार करने पर अखण्ड चित्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व में न बन्धन है और न तो मोक्ष। भगवन! कितने आश्चर्य की बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हैं। और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा मान बैठते हैं। और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूंढ़ने लगते हैं। भला, अज्ञानी जीवों का यह कितना बड़ा अज्ञान है। हे अनन्त! आप तो सबके अंतःकरण में ही विराजमान हैं। इसलिये सन्त लोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूंढ़ते हैं। क्योंकि यद्यपि रस्सी में साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान साँप को मिथ्या निश्चय किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को कैसे जान सकता है? अपने भक्तजनों के हृदय में स्वयं स्फुरित होने वाले भगवन! आपके ज्ञान का स्वरूप और महिमा ऐसी ही है, उससे अज्ञान कल्पित जगत का नाश हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संसार-सागर के झूठा होने के कारण इससे पार जाना भी अविचार-दशा की दृष्टि से ही है
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