जब श्यामसुन्दर घुटनों का सहारा लिये बिना चलने लगे, तब वे अपने घर में अनेकों प्रकार की कौतुकमयी लीला करने लगे- एक दिन साँवरे-सलोने ब्रजराजकुमार श्री कन्हैयालाल जी अपने सूने घर में स्वयं ही माखन चुरा रहे थे। उनकी सृष्टि मणि के खम्भे में पड़े हुए अपने प्रतिबिम्ब पर पड़ी। अब तो वे डर गये। अपने प्रतिबिम्ब से बोले - ‘अरे भैया! मेरी मैया से कहियो मत। तेरा भाग भी मेरे बराबर ही मुझे स्वीकार है; ले, खा। खा ले, भैया!’ यशोदा माता अपने लाला की तोतली बोली सुन रही थीं।
उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे घर में भीतर घुस आयीं। माता को देखते ही श्रीकृष्ण ने अपने प्रतिबिम्ब को दिखाकर बात बदल दी -
‘मैया! मैया! यह कौन है? लोभवश तुम्हारा माखन चुराने के लिए आज घर में घुस आया है। मैं मना करता हूँ तो मानता नहीं है और मैं क्रोध करता हूँ तो यह भी क्रोध करता है। मैया! तुम कुछ और मत सोचना। मेरे मन में माखन का तनिक लोभ नहीं है।’ अपने दुध-मुँहे शिशु की प्रतिभा देखकर मैया वात्सल्य-स्नेह के आनन्द में मग्न हो गयीं।
एक दिन श्यामसुन्दर माता के बाहर जाने पर घर में ही माखन चोरी कर रहे थे। इतने में ही दैववश यशोदा जी लौट आयीं और अपने लाड़ले लाल को न देखकर पुकारने लगीं -
‘कन्हैया! कन्हैया! अरे ओ मेरे बाप! कहाँ है, क्या कर रहा है?’ माता की बात सुनते ही माखन चोर श्रीकृष्ण डर गये और माखन-चोरी से अलग हो गये। फिर थोड़ी देर चुप रहकर यशोदा जी से बोले - ‘मैया, री मैया! यह जो तुमने मेरे कंकण में पद्मराग जड़ा दिया है, इसकी लपट से मेरा हाथ जल रहा था। इसी से मैंने इसे माखन के मटके में डालकर बुझाया था।’
माता यह मधुर-मधुर कन्हैया की तोतली बोली सुनकर मुग्ध हो गयीं और ‘आओ बेटा!’ ऐसा कहकर लाला को गोद में बैठा लिया और प्यार से चूमने लगीं।
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