प्रेम सुधा सागर अध्याय 33 श्लोक 40 का विस्तृत संदर्भ/4

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतीसवाँ अध्याय

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श्रीकृष्ण की सभी इन्द्रियों से सभी काम हो सकते हैं। उनके कान देख सकते हैं, उनकी आँखें सुन सकती हैं, उनकी नाक स्पर्श कर सकती है, उनकी रसना सूँघ सकती है, उनकी त्वचा स्वाद ले सकती है। वे हाथों से देख सकते हैं, आँखों से चल सकते हैं। श्रीकृष्ण का सब कुछ श्रीकृष्ण होने कारण वह सर्वथा पूर्णतम है। इसी से उनका रूप माधुरी नित्य वर्द्धनशील, नित्य नवीन सौन्दर्यमयी है। उसमें ऐसा चमत्कार है कि वह स्वयं अपने को ही आकर्षित कर लेती है। फिर उनके सौन्दर्य-माधुर्य से गौ-हरिन और वृक्ष-बेल पुलकित हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है।

भगवान के ऐसे स्वरूपभूत शरीर से गंदा मैथुनकर्म सम्भव नहीं। मनुष्य जो कुछ खाता है, उससे क्रमशः रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा और अस्थि बनकर अन्त में शुक्र बनता है; इसी शुक्र के आधार पर शरीर रहता है और मैथुनक्रिया में इसी शुक्र का क्षरण हुआ करता है। भगवान का शरीर न तो कर्मजन्य है, न मैथुनी सृष्टि का है और न दैवी ही है। वह तो इन सबसे परे सर्वथा विशुद्ध भगवत्स्वरूप है। उसमें रक्त, मांस, अस्थि आदि नहीं हैं; अतएव उसमें शुक्र भी नहीं है। इसलिये उसमें प्राकृत पांचभौतिक शरीरों वाले स्त्री-पुरुषों के रमण या मैथुन की कल्पना भी नहीं हो सकती। इसीलिये भगवान को उपनिषद में ‘अखण्ड ब्रह्मचारी’ बतलाया गया है और इसी से भागवत में उनके लिये ‘अवरुद्ध सौरत’ आदि शब्द आये हैं। फिर कोई शंका करे कि उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के इतने पुत्र कैसे हुए तो इसका सीधा उत्तर यही है कि यह सारी भागवती सृष्टि थी, भगवान के संकल्प से हुई थी। भगवान के शरीर में जो रक्त-मांस आदि दिखलायी पड़ते हैं, वह तो भगवान की योगमाया का चमत्कार है। इस विवेचन से भी यही सिद्ध होता है कि गोपियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण का जो रमण हुआ वह सर्वथा दिव्य भगवत-राज्य की लीला है, लौकिक काम-क्रीड़ा नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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