प्रेम सुधा सागर अध्याय 22 श्लोक 27 का विस्तृत संदर्भ/6

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वाविंश अध्याय

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एक बात बड़ी विलक्षण हैं। भगवान के सम्मुख जाने के पहले जो वस्त्र समर्पण की पूर्णता में बाधक हो रहे थे विक्षेप का काम कर रहे थे, वही भगवान की कृपा, प्रेम, सान्निध्य और वरदान प्राप्त होने के पश्चात् ‘प्रसाद’-स्वरूप हो गये। इसका कारण क्या है? इसका कारण है भगवान का सम्बन्ध। भगवान ने अपने हाथ से उन वस्त्रों को उठाया था और फिर उन्हें अपने उत्तम अंग कंधे पर रख लिया था। नीचे के शरीर में पहनने की साड़ियाँ भगवान के कंधे पर चढ़कर उनका संस्पर्श पाकर कितनी अप्राकृत रसात्मक हो गयीं, कितनी पवित्र कृष्णमय हो गयीं, इसका अनुमान कौन लगा सकता है। असल में यह संसार तभी तक बाधक और विक्षेपजनक है, जब तक यह भगवान से सम्बन्ध और भगवान का प्रसाद नहीं हो जाता। उनके द्वारा प्राप्त होने पर तो यह बन्धन ही मुक्तिस्वरूप हो जाता है। उनके सम्पर्क में जाकर माया शुद्ध विद्या बन जाती है। संसार और उसके समस्त कर्म अमृतमय आनन्द रस से परिपूर्ण हो जाते हैं। तब बन्धन का भय नहीं रहता।

कोई भी आवरण भगवान के दर्शन से वंचित नहीं रख सकता। नरक नरक नहीं रहता, भगवान का दर्शन होते रहने के कारण वह वैकुण्ठ बन जाता है। इसी स्थिति में पहुँचकर बड़े-बड़े साधक प्राकृत पुरुष के समान आचरण करते हुए-से दीखते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की अपनी होकर गोपियाँ पुनः वे ही वस्त्र धारण करती हैं अथवा श्रीकृष्ण वे ही वस्त्र धारण कराते हैं; परन्तु गोपियों की दृष्टि में अब ये वस्त्र वे वस्त्र नहीं हैं; वस्तुतः वे हैं भी नहीं - अब तो ये दूसरी वस्तु हो गये हैं। अब तो ये भगवान के पावन प्रसाद हैं, पल-पल पर भगवान का स्मरण कराने वाले भगवान के परम सुन्दर प्रतीक हैं। इसी से उन्होंने स्वीकार भी किया। उनकी प्रेममयी स्थिति मर्यादा के ऊपर थी, फिर भी उन्होंने भगवान की इच्छा से मर्यादा स्वीकार की। इस दृष्टि से विचार करने पर ऐसा जान पड़ता है कि भगवान की यह चीरहरण-लीला भी अन्य लीलाओं की भाँति उच्चतम मर्यादा से परिपूर्ण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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