प्रेम सुधा सागर अध्याय 22 श्लोक 27 का विस्तृत संदर्भ/3

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वाविंश अध्याय

Prev.png

गोपियों ने जिनके लिये लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ, जाति-कुल, पुरजन-परिजन और गुरुजनों की परवा नहीं की, जिनकी प्राप्ति के लिये उनका यह महान अनुष्ठान है, जिनके चरणों में उन्होंने अपना सर्वस्व निछावर कर रखा है, जिनके निरावरण मिलन की ही एकमात्र अभिलाषा है, उन्हीं निरावरण रसमय भगवान श्रीकृष्ण के सामने वे निरावरण भाव से न जा सकें - क्या यह उनकी साधना की अपूर्णता नहीं है? है, अवश्य है। और यह समझकर ही गोपियाँ निरावरण रूप से उनके सामने गयीं।
श्रीकृष्ण चराचर प्रकृति के एकमात्र अधीश्वर हैं; समस्त क्रियाओं के कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी वही हैं। ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं हैं जो बिना किसी परदे के उनके सामने न हो। वही सर्वव्यापक, अन्तर्यामी हैं। गोपियों के, गोपों के और निखिल विश्व के वही आत्मा हैं। उन्हें स्वामी, गुरु, पिता, माता, सखा, पति आदि के रूप में मानकर लोग उन्हीं की उपासना करते हैं। गोपियाँ उन्हीं भगवान को जान-बूझकर कि यही भगवान हैं - यही योगेश्वरेश्वर, क्षराक्षरातीत पुरुषोत्तम हैं - पति के रूप में प्राप्त करना चाहती थीं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध का श्रद्धा भाव से पाठ कर जाने पर यह बात बहुत ही स्पष्ट हो जाती हैं कि गोपियाँ श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को जानती थीं, पहचानती थीं। वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत और श्रीकृष्ण के अन्तर्धान हो जाने पर गोपियों के अन्वेषण में यह बात कोई भी देख-सुन-समझ सकता है। जो लोग भगवान को भगवान मानते हैं, उनसे सम्बन्ध रखते है, स्वामी-सुहृद आदि के रूप में इन्हें मानते हैं, उनके हृदय में गोपियों के इस लोकोत्तर माधुर्य सम्बन्ध और उसकी साधना के प्रति शंका ही कैसे हो सकती है।
गोपियों की इस दिव्य लीला का जीवन उच्च श्रेणी के साधक के लिये आदर्श जीवन है। श्रीकृष्ण जीव के एकमात्र प्राप्तव्य साक्षात परमात्मा हैं। हमारी बुद्धि हमारी दृष्टि देह तक ही सीमित है। इसलिये हम श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम को भी केवल वैदिक तथा कामना कलुषित समझ बैठते हैं। उस अपार्थिव और अप्राकृत लीला को इस प्रकृति के राज्य में घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओं का हानि कर परिणाम है। जीव का मन भोगाभिमुख वासनाओं से और तमोगुणी प्रवृत्तियों से अभिभूत रहता है। वह विषयों में ही इधर-से-उधर भटकता रहता है और अनेकों प्रकार के रोग-शोक से आक्रन्त रहता है। जब कभी पुण्यकर्मों के फल उदय होने पर भगवान की अचिन्त्य अहैतुकी कृपा से विचार का उदय होता है, तब जीव दुःख ज्वाला से त्राण पाने के लिये और अपने प्राणों को शान्तिमय धाम में पहुँचाने के लिये उत्सुक हो उठता है। वह भगवान के लीलाधामों की यात्रा करता है, सत्संग प्राप्त करता है और उसके हृदय की छटपटी उस आकांक्षा को लेकर, जो अब तक सुप्त थी, जगकर बड़े वेग से परमात्मा की ओर चल पड़ती है। चिरकाल से विषयों का ही अभ्यास होने के कारण बीच-बीच में विषयों के संस्कार उसे सताते हैं और बार-बार विक्षेपों का सामना करना पड़ता है। परन्तु भगवान की प्रार्थना, कीर्तन-स्मरण, चिन्तन करते-करते चित्त सरस होने लगता है और धीरे-धीरे उसे भगवान की सन्निधि का अनुभव भी होने लगता है। थोड़ा-सा रस का अनुभव होते ही चित्त बड़े वेग से अन्तर्देश में प्रवेश कर जाता है और भगवान मार्ग दर्शक के रूप में संसार-सागर से पार ले जाने वाली नाव पर केवट के रूप में अथवा यों कें कि साक्षात चित्स्वरूप गुरुदेव के रूप में प्रकट हो जाते हैं। ठीक उसी क्षण अभाव, अपूर्णता और सीमा का बन्धन नष्ट हो जाता है, विशुद्ध आनन्द - विशुद्ध ज्ञान की अनुभूति होने लगती है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः