प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 86

प्रेम सत्संग सुधा माला

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प्यारे सखा! उपाय नहीं है। लाख प्रयत्न करो, श्यामसुन्दर के हाथों से भरा हुआ प्रेममय घट, अमृतमय घट तुम्हारे योग के खारे समुद्र में डूबेगा ही नहीं। ओह! मैं सचमुच पागल हो गयी हूँ, क्या-क्या बक रही हूँ। क्षमा करना प्यारे सखा! मैं होश में नहीं हूँ, यह पगली का प्रलाप है। मेरे जले हुए— झुलसे हुए ह्रदय में ज्ञान नहीं बच गया है कि मैं विचारकर तुमसे बात करूँ। कभी कुछ, कभी कुछ बकती ही चली जा रही हूँ।’

‘प्यारे श्यामसुन्दर के सखा! तुम देख नहीं पाओगे; पर यदि देख पाते तो देखते कि श्यामसुन्दर यहाँ से कभी कहीं गये ही नहीं, एक क्षण के लिये भी कहीं बाहर नहीं गये। वे यहीं हैं, सदा यहीं रहते हैं और यहीं रहेंगे। मैं रहूँगी और मेरे प्रियतम रहेंगे। अनन्त काल तक रहेंगे। अभी-अभी कल की बात है। तुम्हें सुनती हूँ, कल सायंकाल की बात है। मेरे प्रियतम प्राणनाथ वन से गाय चराकर लौट रहे थे। मैं उस क्षण घर के भीतर बैठी थी, अनुभव कर रही थी कि श्यामसुन्दर तो पास ही हैं। इतने में वंशी बजी, चेत हुआ, सोचा, भ्रम हो गया है, श्यामसुन्दर तो गाय चराकर अभी लौट रहे हैं। मैं सुनने लगी उस मुरली की मधुर ध्वनि को। मेरे नाथ, मेरे प्राणबन्धु मेरा नाम ले-लेकर मुरली में सुर भर रहे थे। बाहर आयी, देखा— आह! कैसी अनुपम छबि थी। नील कमल के समान सुन्दर मुखारविन्द था, श्याम मेघ के समान समस्त शरीर संध्याकालीन सूर्य की रश्मियों में झलमल-झलमल कर रहा था, मुख पर धूलि के कण उड़-उड़कर पड़ रहे थे, स्वेद की कुछ बूँदें झलक रही थीं, घुँघराली अलकें बार-बार मुख पर आ जाती थीं और मेरे प्यारे श्यामसुन्दर उन अलकों को बार-बार बायें हाथ से हटाते रहते थे। आह, उन आँखों की शोभा क्या बताऊँ! तुरंत का खिला कमल उस शोभा के सामने फीका पड़ जाता था। मेरे हृदेश्वर बार-बार तिरछी चितवन डालकर मुझे देख लेते थे। मैं देख रही थी और वे मस्तानी चाल से, अत्यन्त मधुर चाल से चलते हुए मेरी ओर ही आ रहे थे। उद्धव! उद्धव!! मैं मूर्च्छित होती जा रही थी, मुझ पर उनकी मनोहर मुसकान जादू का काम कर रही थी। इतने में ही वे बिलकुल मेरे पास से होकर निकले। मित्र! क्या बताऊँ? रोक न सकी मैं अपने को; उनमें मिल जाने के लिये, अपने-आपको उनमें मिला देने के लिये दौड़ पड़ी। वे हँसने लगे, हँसते-हँसते लोट-पोट-से होने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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