प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 71

प्रेम सत्संग सुधा माला

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60- जीवन का एकमात्र उद्देश्य श्रीकृष्ण की प्राप्ति बनाकर जब तक मन से अधिक-से-अधिक श्रीकृष्ण-चिन्तन नहीं होता, तब तक प्रेमी भक्तों के प्रति आकर्षण तेजी से बढ़ना कठिन है। आवश्यकता है केवल इसी बात की- जिस किसी भी प्रकार से मन में श्रीकृष्ण के गुणों की, लीला की, नाम की मधुर-मधुर स्मृति बनी ही रहे। बस, इसी बात की चेष्टा करें, इसी में जीवन का साफल्य है और ऐसा करने से ही रास्ता तय होगा।

आँखों के सामने आप यह स्थान देख रहे हैं, पाल तना दीख पड़ रहा है, पर यहीं पर दिव्य सच्चिदानन्दमय वृन्दावन-राज्य है, यहीं पर श्रीकृष्ण हैं और समस्त लीला ठीक यहीं पर चल रही है। मन से चिन्तन कीजिये- ‘संध्या का समय है। वन से श्रीकृष्ण गायें चराकर लौट रहे हैं। आगे गायों की कतारें हैं, गायें हुमग-हुमगकर श्रीकृष्ण के पास जाना चाहती हैं। पीछे भी गायों की कतार है। बीच में भगवान् अत्यन्त मधुर स्वर से वंशी बजा रहे हैं। ध्वनि की मधुरता के कारण गायों में भी एक अत्यन्त शान्ति-सी बीच-बीच में आ जाती है। श्रीकृष्ण पीताम्बर पहने हुए हैं। घुँघराले केश मन्द-मन्द हवा के झोंकों से ललाट पर आ जाते हैं। उन्हें वे बायें हाथ से हटा देते हैं। सड़क के किनारे श्रीगोपीजनों की कतार लगी हुई है। श्रीकृष्ण अपने बालों को हटाकर कभी किनारे की ओर, कभी पीछे की ओर ताक देते हैं, मुसकरा देते हैं। थोड़ा आगे बढ़ते हैं, गायें भी आगे बढ़ती हैं। ग्वालबाल कभी उनके पीछे हो जाते हैं, कभी आगे...’ इस प्रकार मन को कभी गाय में, कभी ग्वालबाल में, कभी श्रीकृष्ण में, कभी श्रीकृष्ण के मुकुट में, कभी उनकी घुँघराली अलकों में, कभी वंशी में, कभी चरणों में, कभी वृन्दावन के कदम्ब के पेड़ में, कभी आम के पेड़ में और कभी अमरुद के पेड़ में स्थिर करने की चेष्टा करें। मन को मुकुट देखने में लगाया और फिर आसानी से जितनी देर वह टिक सके उतनी देर उसे टिकाकर, जब हटने लगे तो उनके किसी दूसरे अंग में लगा लें, फिर वहाँ से उचटे तो तीसरे अंग में लगाते रहिये। वन, नदी, पर्वत, गाय, सड़क, गोपी, ग्वाल-बाल, आम, अमरुद, छीके, डंडे, बाँसुरी- ऐसी अनन्त चीजें हैं, जिनमें चाहियेगा तो मन लगा सकते हैं। बस, मन को फुरसत मत दीजिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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