प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 63

प्रेम सत्संग सुधा माला

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53- विज्ञान का नियम है- काँच ही नहीं, समस्त धातु बनते ही हैं सूर्य से। सूर्य की किरणों से ही समस्त धातुओं का निर्माण होता है। सूर्यकान्तमणि भी बनती है सूर्य से ही। उसी प्रकार ठीक से कोई भी भगवान् एवं संत की कृपा को ग्रहण करके एक क्षण में ही उच्च-से-उच्च अधिकारी बन सकता है। आज व्याख्यान में सुना- लाखों वर्ष के अन्धकार को मिटाने के लिये लाख वर्ष की जरूरत नहीं है। जरूरत है प्रकाश पहुँचने की। प्रकाश आते ही उसी क्षण उजाला हो जायगा। ठीक इसी प्रकार रत्ती भर भी कोई साधना नहीं चाहिये, कुछ भी जरूरत नहीं है, जरूरत है- बस, आप सच्चे मन से चाह लें उनकी कृपा को ग्रहण करना। निश्चय समझें, फिर वह उसी क्षण प्रकाशित हो जायगी। उसी सच्ची चाह का स्वरुप यही है कि दूसरी कोई भी चाह मन में न रहे और वह चाह किसी अन्य वस्तु से मिटे नहीं।

54- सर्वत्र भगवद्दर्शन तथा महापुरुषों के प्रति तीव्र आकर्षण दोनों ही बातों के लिये जिस क्षण तीव्र उत्कण्ठा, तीव्र चाह उत्पन्न होगी, उसी क्षण आपकी दशा बड़ी विलक्षण हो जायगी। जीवन में केवल एक ही उद्देश्य रह जायगा- कैसे ये दो बातें पूरी हों, कैसे किस उपाय से जल्दी-से-जल्दी यह हो जाय। उस समय जो भी उपाय आपको बताया जायगा, कोई मामूली व्यक्ति विनोद में भी आपको बता देगा तो आप वही करने के लिये पागल की तरह तैयार हो जाइयेगा। वह करना नहीं पड़ता, स्वाभाविक मन की ऐसी दशा हो जाती है। पर अभी क्या दशा है- विचारें, चेष्टा करने के लिये मन बहुत कम तैयार है। भगवद्दर्शन के लिये सर्वश्रेष्ठ उपाय- सबसे सरल उपाय, जिसमें मन की बहुत कम जरूरत है, ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण ने उद्धव को श्रीमद्भागवत-समाप्ति के समय बताया है, पर उसे कौन करने के लिये तैयार है? भगवान् ने कहा है-

विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकीम् ।
प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम् ॥
यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते ।
तावदेवमुपासीत वांगमनःकायवृत्तिभिः ॥
अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम ।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः ॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (श्रीमद्भ. 1111 । 29 । 16-17, 19)

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