प्रेम सत्संग सुधा माला
परंतु क्या आपको वह आनन्द मिलता है? निश्चय ही नहीं मिलता। मिलता होता तो आपकी स्थिति ही बदल जाती। वहाँ, संत के ढाँचे के अन्तराल में वह बोलता है, जो सर्वेश्वर है, जो ‘सुहृदं सर्वंभूतानाम्’ की घोषणाकरता है; जिसमें केवल आनन्द-ही-आनन्द है। पर आपको तो डर लगता है, प्रतिकूलता की प्रतीति होती है। जहाँ प्राण की व्याकुलता लेकर सदा के लिये उसी मंव समा जाने की इच्छा हो जानी चाहिये थी, वहाँ उपरामता भी आती है। ऐसा क्यों होता है? इसलिये कि उसमें मिले नहीं। आग की तरह उसकी कृपा आपको चारों ओर से घेर रही है, घेरे हुए है और आगे चलकर वह मिला भी लेगी निश्चय; परंतु अभी तक आप अपनी ओर से मिले नहीं। अपनी दुर्गन्ध से आपको घृणा नहीं है। आप उसमें मिल जाने की तीव्र लालसा नहीं रखते। विश्वास कीजिये- ‘आप चाहे मलिन-से-मलिन प्राणी क्यों न हों, केवल मैले की तरह आपमें दुर्गन्ध ही क्यों न भरी हो, बाहर-भीतर, नीचे-ऊपर, केवल बदबू आ रही हो; पर ‘संत’ नाम की वस्तु इतनी पवित्र है, इतनी सरस है कि उसका स्पर्श होते ही आप बिलकुल उसी ढाँचे में ढल जाइयेगा। आग क्या यह देखती है कि यह मिला है? मैला आग में पड़ा कि सारा-का-सारा अंगारा बन जायगा। अस्तु, मिलिये। उसमें मिलिये। अपनी सारी मलिनता, सारी दुर्गन्ध लेकर मिलिये! दिन-रात उसके इशारे पर चलने की चेष्टा कीजिये। दिन-रात सोचिये, संत कितने कृपालु हैं। दिन-रात यह विचार कीजिये- ‘कृपामय! तुम्हारी कृपा ही मुझे भले अपना ले, मुझमें तो बल नहीं।’ दिन-रात नाम लीजिये, चलते-फिरते नाम लीजिये। इससे बड़ी सहायता मिलेगी। दिन-रात यही इच्छा कीजिये कि संत का संग न छूटे। दिन-रात यही सोचिये कि संत के लिये परिवार, संत के लिये इज्जत यदि बाधक है तो संत के चरणों में इनको भी समर्पण कर देना है। इसका यह अर्थ नहीं कि मैं किसी को संन्यासी बनने की उत्तेजना देता हूँ। बाहर कपड़ा रँगकर भी क्या होगा। परंतु यह ठीक है, नितान्त सत्य है, सर्वस्व की आहुति देने के लिये तैयारी मन से ही करनी पड़ेगी। बाहर का ढाँचा ज्यों-का-त्यों रहकर मन बिलकुल खाली हो जायगा, तभी आपकी अभिलाषा पूर्ण होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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