प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 57

प्रेम सत्संग सुधा माला

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हम लोगों में से ऐसा अभी कोई नहीं है, जो किसी संत के प्रति सर्वथा इस श्रद्धा के स्तर पर पहुँचा हो। अतः उसे यह ध्यान में रखना चाहिये कि ऐश्वर्य-अंश में भगवत्ता के प्रकाश अर्थात् सर्वज्ञता, सर्वसमर्थता की अभिव्यक्ति की ओर से दृष्टि मोड़ ले। अन्यथा होगा यह कि उसकी श्रद्धा की कमी के कारण इस शक्ति के प्रकाश में उसे त्रुटि दीखेगी और वह फिर उधेड़-बुन में पड़ेगा। इस भागवतीय नियम को याद रखना चाहिये। अवतार में और भगवदरूप संत में, जो जीव भाव को लिये हुए जन्मे थे और फिर भगवत्-सत्ता में विलीन हो गये- (दोनों में) अन्तर यही है कि जो अनादिसिद्ध भगवान् का अवतार है, उसमें तो दोनों शक्तियों की अभिव्यक्ति अर्थात् कल्याण-गुणता एवं ऐश्वर्य की शक्तियों का प्रकाश बिना श्रद्धा के ही होता है। पर सर्वोच्च संत में केवल कल्याणगुणता ही प्रकाशित होती है, ऐश्वर्य श्रद्धालु की संशयहीन श्रद्धा होने पर ही कहीं प्रकाशित होता है।

48-काम करते समय जिस-किसी वस्तु पर दृष्टि जाय, उसी में एक बार श्रीश्यामसुन्दर की उस मधुर छबि को देखने का अभ्यास कीजिये। साथ ही ‘नाम’ निरन्तर चलता रहे। छूटे, फिर पकड़े; इस प्रकार अपनी जान में ईमानदारी के साथ जीभ से नाम एवं मन के द्वारा लीला का या रूप का चिन्तन करने की पूरी चेष्टा करें। फिर यदि एक पाई भी सफलता न हो तो कोई आपत्ति नहीं, बिलकुल आपत्ति नहीं। साधना न हो तो दोष की बात बिलकुल नहीं है, पर उसके लिये मन में महत्व न होकर उसे छोड़ देना दोष है। मान लें- समस्त जीवन चेष्टा करते रह गये, न वृत्ति सुधरी, न भाव हुआ, न विश्वास, यहाँ तक कि रूप की मामूली धारणा कर मन एक सेकण्ड के लिये भी स्थिर नहीं हुआ। पर यह लालसा लगी रही और बार-बार करते ही गये तो फिर मैं तो संशयहीन होकर ही यह कहता हूँ कि आपको ठीक वही चीज भगवान् देंगे, जो सर्वथा साधना की परिपक्व अवस्था में ऊँचे साधकों को मिलती है। ध्यान करते समय कोई चित्र नहीं बँधता, तो घबराइये मत। कभी वृन्दावन तो गये ही हैं। वहाँ का सर्वोत्तम दृश्य, जो आपके मन में हो उसको, उन पेड़-पत्तों की धुँधली-सी स्मृति मानस-पटल पर क्या नहीं ला सकते? मैं ठीक कहता हूँ- मस्तिष्क यदि पागल हो जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा निश्चय ला सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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